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२६ जून, १९५७
''परंतु फिर भी प्रजननके साधारण साधनों और भौतिक प्रकृति- की स्थूल पद्धतिका सहारा लेनेकी आवश्यकता है । अगर इस आवश्यकतासे बचना हो तो एक विशुद्ध गुह्य पद्धतिको संभव बनाना होगा, ऐसी अतिभौतिक प्रक्यिाओंका सहारा लेना होगा जो भौतिक फल उत्पल करनेके लिये अतिभौतिक साधनोंके द्वारा कार्य करें; इसके बिना काम-प्रेरणा और उस- की पशु-सुलभ प्रीक्याको अतिक्रम नहीं किया जा सकता । अगर स्थूल वस्तुको सूक्ष्म रूपमें बदल देने और फिर उसे सूक्ष्म रूपसे स्थूल रूपमें ले आनेकी प्रक्यिामें कुछ सत्यता हों, जिसके संभव होनेका दावा गुह्य-विद्या-विशारद करते हैं और जिसे घटनाओंके द्वारा सिद्ध होते हुए हम लोगोंमेंसे बहुतोंने देखा है', तो फिर इस तरहकी पद्धतिका होना सभा-
संभवतः श्रीअरविंदका सकेत ( दूसरी चीजोंके साथ-साथ) उस घटनाकी ओर है जो १९२१ मे, पाडिचेरीमें ''अतिथिगृह'' मे हुई थी जहां श्रीअरविंद रहा करते थे । एक रसोइयेको निकाल दिया गया था । अपना बदला लेनेकी कोशिशमें वह एक स्थानीय जादूगरके पास गया, और ''अतिथि-
१२१ व्यताके क्षेत्रसे बाहर नहीं होगा । क्योंकि गुह्य-वेत्ताओंके सिद्धांतके अनुसार और अपनी सत्ताके क्षेत्रों एवं स्तरोंकी जो रूपरेखा यौगिक ज्ञानने हमें दी है उसके अनुसार एकमात्र सूक्ष्म भौतिक शक्ति ही नहीं, बल्कि, प्राण और स्थूल जड़- तत्त्वके बीच एक सूक्ष्म भौतिक जड़-तत्व भी है, और इस सूक्ष्म भौतिक पदार्थके अंदर रूपोंका निर्माण करना और इस तरह निर्मित रूपोंको स्थूल पार्थिव सघनतामें ले आना शक्य है । यह संभव होना चाहिये और इसे संभव माना जाता है कि इस सूक्ष्म भौतिक पदार्थमें निर्मित रूपोंको किसी गुह्य शक्ति और प्रक्यिाके हस्तक्षेपद्वारा उसकी सूक्ष्म अवस्थासे सीधा स्थूल भौतिक अवस्थामें लाया जा सकें, चाहे यह किसी स्थूल भौतिक प्रक्रियाकी सहायता व हस्तक्षेपसे हो अथवा उसके बिना । यदि कोई अंतरात्मा किसी शरीरमें आना या अपने लिये किसी शरीरका निर्माण करना चाहे ताकि वह पृथ्वीपर दिव्य जीवनमें भाग लें सके तो उसे इसमें सहायता की जा सकती है अथवा, सीधे रूपग्रहणकी इस पद्धतिद्वारा उसे एक निर्मित रूप प्रदान किया जा सकता है ताकि उसे काम-प्रक्रिया- द्वारा प्राप्त जन्ममेंसे न गुजरना पड़े और मन व स्थूल शरीर-
गृह''के चौकमें पत्थरोंकी बौछार होने लगी और नियमित रूपसे कई दिन- तक होती रही । जो लोग वहां पहली मंजिलपर रहते थे उन्होंने अपनी आंखकी ठीक ऊंचाईपर इन पत्थरोंको बनते और चौकमें गिरते देखा था । ये पत्थर इतने वास्तविक थे कि एक युवा सेवक इनसे घायल हुआ था और इन्हें इकट्ठा किया जा सकता था (विचित्र बात यह है कि सवार काई लगी थी) । अतमें, जब पत्थर बंद कमरोंमें भी गिरने लगे और अधिकाधिक बड़े होते गायें और इसमे कोई सन्देह नहीं रहा कि इनका स्रोत कोई गुह्य शक्ति है तो श्रीमांने अपनी आंतरिक शक्तिसे इसमें हस्तक्षेप किया और ''बौछार'' बन्द हों गयी... । कुछ दिन बाद जादूगरकी पत्नी भागी-भागी श्रीअरविदके पास आयी और क्षमा और कृपाके लिये याचना करने लगी : जादूगर हस्पतालमें था, और अपने पत्थरोंकी वौछारकै प्रत्याघातसे मरनेको हो रहा था । श्रीअरविदने मुस्कराकर उत्तर दिया, ''झुमके लिये उसे मरनेकी जरूरत नहीं! '' और सब चीज फिरसे ठीक हो गयी । यह घटना श्री अंबालाल पुराणीद्वारा लिखित 'द लाइफ अंक श्रीअरविदो' नामक अंग्रेजी पुस्तकके पृ० २७३ पर विस्तारसे दी हुई है ।
१२२ की वृद्धि एवं विकासके लिये किसी निम्न अवस्था था बोझिल सीमाओंके अंदरसे न गुजरना पड़े, जो जीवनके वर्तमान ढंगमें एक अनिवार्य चीज है । तब वह तुरत ही ऐसे शारीरिक गठन और ऐसी महत्तर शक्तियों व क्यिाओंसे अपना जीवन शुरू कर सकेगा जो सचमुच दिव्य भौतिक शरीरके उपयुक्त हों, और ऐसा दिव्य शरीर इस क्रमिक विकासमें, एक दिन जब दिव्यीकृत पार्थिव प्रकृतिमें जीवन और बाह्य आकार दोनों- का संपूर्णतः रूपांतर हो जायगा, अवश्य प्रकट होगा ।',
(अतिमानसिक अमिउयक्ति)
मां, अब जब कि अतिमानस यहां पृथ्वीपर है क्या गर्भसे बिना गुजरे सीधे रूप धारण करनेकी यह पद्धति संभव है?
क्रया यह संभव है? तुम पूछ रहे हो कि यह संभव है या नहीं?... प्रत्येक चीज संभव है? तुम क्या जानना चाहते हों? क्या यह हो चुका है ?
जो !
एकदम निचले, पूर्ण भौतिक स्तरतक नहीं; गोचर सूक्ष्म भौतिक स्तरतक हो चुका है, मध्यवर्ती इंद्रियोंद्वारा, जो भौतिक इंद्रियों और सूक्ष्म भौतिक इंद्रियोंके बीचमें है उनके द्वारा उसे जाना जा सकता है । उदाहरणार्थ, जैसे हम श्वासको एक हल्की वायुके रूपमें अनुभव करते है, जैसे गन्धके कुछ बोध सूक्ष्म सुगन्धोंके रूपमें होते हैं । स्वभावत., जिन्हें अंतर्दृष्टि प्राप्त है वे देख भी सकते है, पर अत्यधिक स्थूल इद्रियोंको वहां--कैसे कह? -- किसी ऐसी सुस्थिर वस्तुका बोध नही होता जैसा कि भौतिक शरीरका होता है जिसे हम स्थूल रूपमें अनुभव करते है । ऐसे आभास होते है, हा, उन्हें देखा मी जा सकता है, पर वे उड़ते-से होते है, उनमें दृढ़ता, जडतत्वकी दृढ़ता नहीं होती, आकारकी ठोस निश्चितता अभीतक प्राप्त नहुाई हुई है । मेरा मतलब है वहां संपर्क होता है, यहांतक कि स्पर्शक संपर्क भी प्राप्त होता है, उसे देखा भी जा सकता है पर वहां ऐसी मुस्थिरता नन्हीं होती जैसी हम स्थल शरीरमें देखते है । ये आते-जाते आभास है और स्वभावत: एकदम ठोस वास्तविकताकी वही अनुभूति नहीं देते । तथापि प्रभाव निरंतर रहता है, हस्तक्षेप निरंतर रहता है, बोब
१२३ निरंतर रहता है, पर उस शरीरकी-सी दृढ़ता नहीं होती... हां, जो कमरेसे बाहर जाता है और उसी रूपमें लौट आता है जिस रूपमें गया था, समझ रहे हो न? अथवा जैसे जब तुम किसी स्थानपर बैठते हो तो उतने स्थान- को पूरे ठोस रूपमें घेरे होते हो, उस प्रकारकी स्थिरता नहीं होती ।
मैं नहीं कह सकती क्योंकि मैं वह सब नही जानती जो पृथ्वीपर हुए चुका है या हो रहा है, पर जहांतक मुझे मालूम है, यह चीज, यह ठोस सुस्थिरता अभीतक प्राप्त नहीं हुई है ।
फिर भी, (जो कुछ प्राप्त हुआ) वह भौतिकतासे संबंध रखता था क्योंकि उसमें दर्शन, संपर्क और श्रवण मौजूद था । किंतु श्रवण - उसके लिये अत्यन्त भौतिक रूप लेना जरूरी नही है : सूक्ष्म भौतिक जीवनके नाद, उसके प्रकंपन अच्छी तरह सुने जा सकते है और यह एक बहुत विचित्र बात है कि सूक्ष्म भौतिक जगत्में श्रवण और गन्ध ही सबसे सुस्थिर प्रतीत होते है, रूप-दर्शनसे मी अधिक -- और साथ ही संपर्ककी भी एक विशिष्ट भावना, जो बहुत, बहुत यथार्थ होती है । केवल भौतिक शरीरकी यह बहुत अधिक भौतिक उपस्थिति जो एक सुनिश्चित स्थानको इतने यथार्थ रूपमें घेरे होती है कि कोई दूसरी वस्तु उस स्थानपर नही आ सकती अभीतक संभव नहीं हुई है । अत: जो कुछ अभीतक प्राप्त किया गया है वह अत्यधिक भौतिक होनेकी अपेक्षा अधिक तरल रहा है ।
क्या यह प्रगति मानव चेतनापर निर्भर है?
तुम्हारा मतलब है अधिक पूर्ण मूर्त रूप लेनेके लिये?... यह निर्भर है जडू-तत्वके स्पदनोंके साथ व्यवहार करनेकी क्षमतापर, और व्यवहार करने- की यह क्षमता अवश्य ही चेतनाकी विशिष्ट स्थितिका परिणाम है । और सब कुछ तुम्हारे दृष्टि-बिंदुपर निर्भर है, क्योंकि कोई भ) वैयक्तिक प्रगति उसके बिना नही हों सकती जिसे भागवत संकल्पकी ''स्वीकृति'' कहा जाता है । और अंतमें, सृष्टिमें कुछ भी भागवत मकल्पकी स्वीकृतिके बिना नहीं हों सकता । इसलिये....
मां, क्या पहला अतिमानसिक शरीर इसी तरहका होगा?
किस तरहका?
पार्थिव जन्ममेंसे गुजरे बिना रूपांतर?
१२४ आह! क्षमा करना, चीजोंको उलझाओ नहीं । दो बातें है । एक ओर तो विशुद्ध अतिमानसिक सृष्टिकी संभावना है औ र दूसरी ओर इस भौतिक शरीरके अतिमानवीय शरीरमें प्रगतिशील रूपसे रूपांतरित होते जाने की संभावना है । यह एक प्रगतिशील रूपांतर होगा जिसमें कुछ वर्ष लगेंगे, संभवत : काफी वर्ष लगें औ र उससे एक ऐ सें प्राणिक आविर्भाव हों जो '' मनुष्य '' शब्दके साथ पशुताकी जो भावना जुडी है उस अर्थमें तो '' मनुष्य '' नही होगा, पर ऐसा अतिमानसिक प्राणी भी न होगा जो समस्त पशुता सें पूरी तरह बाहर हो, क्योंकि उसका वास्तविक मू ल उद्भव मजबूरन पाशविक है । इस प्रकार रूपांतर तो हों सकता है औ र इतना रूपांतर हो सकता है कि -इस मूल लोतसे काफी कुछ मुक्ति मिल जाया, पर फिर भी वह चीज विशुद्ध और संपूर्णत : अतिमानसिक सृष्टि नहीं होगी । श्रीअर्रावंद कहा है कि एक मध्यवर्ती जाति होगी -- जाति होगी या शायद कुछ व्यक्ति होंगे, कहना कठिन है - एक मध्यवर्ती पैड जो रास्तेका काम देगी अथवा सृष्टिके प्रयोजन एवं आवश्यकताकी दृष्टिसे इसे स्थायी भी बनाया जा सकता है । परंतु यदि हम उस शरीरसे शुरू करें जो वर्तमान मानव शरीरोंकी तरह बना हुआ है तो वही परिणाम कमी नहीं प्राप्त होगा जो तब होगा जब शरीर पूरी तरह अतिमानसिक पद्धति और प्रक्रियासे बनकर तैयार होगा । शायद वह इस अर्थमें बहुत कु छ अति- मानवकी तरह होगा कि पशु-समान समस्त व्यक्त रूप समाप्त हो जायंगे पर उसमें उस शरीरकी वह चरम पूर्णता नहीं होगी जो अपनी रचनामें विशुद्ध रूपसे अतिमानसिक होगा ।
और इस रूपांतरित मानव शरीरमें क्या स्त्री और पुरुषका भेद रहेगा?
क्या, क्या कहा तुमने?
यदि अतिमानस इस रूपांतरित शरीरको स्वीकार करे...
स्वीकार करे? क्या मतलब हुआ इसका कि ''स्वीकार करे''?
इसका मतलब यह कि इस अर्ध-मानव शरीरमें ''उतर आये'' -- क्या तब भेद रहेगा?
१२५ पर यह ऐसी बात नही है, यह बोतल नहीं है जिसमे तुम कोई द्रव-पदार्थ भर लो । यह ऐसा नहीं है ।
तुम यह पूछ रहे हो कि शरीरका अपना नर या मादा रूप रहेगा या नहीं? संभवत: यह चीज उस सत्ताके चुनावपर छोड़ दी जायेगी जो इस गृह- मे प्रवेश करेगी, गृहस्वामीपर... । तुम्हें इसमें, इस भेदमें बहुत अधिक रुचि है? (हंसी)
आप कहती हैं कि भेद नहीं होगा, पर अभीतक' तो काफी भेद बना हुआ है ।
किस दृप्टिसे? यदि शारीरिक आकृतिसे तुम्हारा मतलब है तो बात समझमें आती है -- तो भी, इतना अधिक नहीं, फिर भी । किस दृष्टिसे?
सेक्स-विषयक इस विचारकी दृष्टिसे कि दो विभिन्न सेक्स है । यह अभीतक बना हुआ है ।
विचार? पर वह तो सोचनेवालेका दोष है! इसे बिना सोचे मी काम चल सकता है । ये, समझे, विचारकी अत्यंत संकीर्ण सीमाएं है और ये ऐसी चीजों है जिन्हें तुम अपने शरीरके रूपांतरके लिये प्रयत्न करो उससे पहले ही लुप्त हो जाना चाहिये । यदि तुम अभी भी इन अति तुच्छ, निरी पशूचित कल्पनाओंमें निवास करते हों तो इमकी बहुत आशा नहीं कि तुम शरीरके रूपांतरकी कुछ जरा-सी मी प्रक्रिया शुरू कर सततेंगे । तुम्हें पहले अपने विचारको रूपांतरित करना होगा. । क्योंकि वह एक ऐसी चीज है जो अभी मी बहुत नीचे तलमें रेंग रही नैण । यदि तुम इसे अनुभव करतेमें असमर्थ हो कि कोई सचेतन खमौर सजीव सत्ता सेक्सकी समस्त भावनासे, किसी विशिष्ट आकारमें भी, पूर्णत: मुक्त हो सकती खै तो इसका... इसका मतलब है कि तुम अभीतक जन्म-विषयक पशुतामें आकंठ डूबे हुए हो ।
आंतरिक विचारमें व्यक्ति इसे अनुभव कर सकता है, पर भौतिक जीवनकी यथार्थतामें...
क्या, यथार्थता?
१२६ मैंने बाह्य जीवनमें इसे अभी नहीं पाया है । आंतरिक रूपमें...
तुम अपना समय इसीके बारेमें सोचनेमें बिताते हो?
परंतु व्यक्ति चौबीस-के-चौबीस घंटे ऐसे रह सकता है कि इस भेद- के बारेमें एक मी विचार न आये । तुम अवश्य ही इस चीजसे पूरी तरह सम्मोहित हो गये लगते हो । तुम सोचते हो कि जब मैं तुमसे बात करती हू तो मैं यह सोचती हूं कि तुम पुरुष हों और जब मैं तारासे बात करती हू लौ यह सोचती हू कि वह स्त्री है ।
फिर भी भेद तो है हा!
आह! पर यह आवश्यक बिलकुल भी नहीं है ।
सिद्धांत रूपमें मैं समझता हू ।
सिद्धान्त रूपमें! कौन-सा सिद्धान्त?
कि कोई भेद नहीं है । किंतु जब मैं किसी ब्यक्तिके संपर्कमें आता हू तो मैं किसी पुरुष या स्त्रीसे ही बात करता हू । '
ओह, यह तुम्हारे लिये और उसके लिये बहुत खेदकी बात है ।
नहीं, यह जो होना चाहिये उससे ठीक उलटी बात है । जब तुम किसी व्यक्तिके संपर्कमें आते हो और उससे बात करते हो तो तुम्हें उसके अंदर- की ठीक उस वस्तुसे बात करनी चाहिये जो समस्त पशुतासे ऊपर है, तुम्हें उसकी अंतरात्माको संबोधित करना चाहिये, उसके शरीरको नहीं । बल्कि तुमसे और अधिककी आशा की जाती है, तुमसे चाहा जाता है कि तुम भगवानको संबोधित करो -- अंतरात्माको भी नहीं - प्रत्येक प्राणीमें स्थित छुकमैव भगवानको संबोधित करो और उसके प्रति सचेतन बने रहो ।
परंतु यदि केवल एक तरफका व्यक्ति ही सचेतन हो और दूसरा पशुवत् हो तो क्या होगा?
यदि केवल एक ही सचेतन हो? पर इस बारेमें तुम जानते ही क्या हो? कैसे और किस स्तरसे तुम यह निर्णय करते हो कि दूसरा सचेतन नहीं है?
१२७ उत्तर देनेके ढंगसे ।
पर शायद वह तुम्हारे बारेमें यही सोचता हो!
अच्छा, लो मैं तुम्हें बताती हुं कि जबतक दूसरेसे बात करने ममय तुम उसमें भागवत उपस्थितिको संबोधित नहीं करते, तबतक इसका मतलब यही होता है कि तुम अपने अंदर मी उसके प्रति सचेतन नहीं हों । और उस हालतमें दूसरे व्यक्तिकी अवस्थाके बारेमें निर्णय देना एक बहुत बड़ी ढिठाई है । तुम उसके बारेमें जानते ही क्या हो? यदि तुम स्वयं दूसरे- मे भगवानके प्रति सचेतन नहीं हों ता तुम किस अधिकारसे कह सकते हों कि वह उनके बारेमें सचेतन है या नहीं? किस आधारपर? अपनी तुच्छ बाह्य बुद्धिके? किंतु वह तो कुछ भी नहीं जानती! वह किसी भी चीजको देखनेमें बिलकुल असमर्थ है ।
जबतक तुम्हारी दुष्टि सब चीजोंमें सतत रूपसे भगवानके दर्शन नही करती तबतक दूसरे किस स्थितिमें है इसपर निर्णय देनेका न केवल तुम्हें अधिकार नहीं होता, बल्कि तुम्हारे अंदर क्षमता भी नहीं होती । और ऐसी अवस्था पाये बिना जिसमें यह दृष्टि सहज और अनायास रूपमें सतत बनी रहे किसी व्यक्तिके बारेमें राय देना मनकी धृष्टताको सूचित करता है जो कि ठीक वही चीज है जिसके बारेमें श्रीअरविंदने हमेशा कहा है... । और होता यह है कि जिसमें यह दुष्टि और चेतना है, जो सब वस्तुओंमें स्थित सत्य देख सकता है, उसे कमी किसी वस्तुका, चाहे वह कुछ भी हो, मूल्यांकन करनेकी आवश्यकता अनुभव नहीं होती । क्योंकि वह प्रत्येक वस्तुको समझता और जानता है । फत्ठस्वरूप तुम्हें यह बात निश्चित रूप- सें बता देनेकी जरूरत है कि जिस क्षण तुम वस्तुओं, व्यक्तियों और परि- स्थितियोंके मूल्यांकन करने लगते हो तुम सर्वथा मानवी अज्ञानमें होते हो । इसे सारांशमें यों कह सकते है. जब तुम समझते हों तो मूल्यांकन करने नहीं बैठते और जब मूल्यांकन करते हो तो इसका मतलब होता है कि तुम जानते ही नहीं ।
मूल्यांकन उन पहली चीजोंमेंसे है जो, इससे पहले कि तुम अतिमानसके पथपर एक कदम मी धर सको, चेतनामेंसे पूरी तरह साफ हो जानी चाहिये, कारण यह भौतिक प्रगति या शारीरिक प्रगति नहीं है, यह केवल विचारकी एक बहुत जरा-सी प्रगति, मानसिक प्रगति है । और जबतक तुम अपने मनमेंसे इस सब अज्ञानका पूरी तरह सफ़ाया नही कर देते तुम अतिमानसके पथपर एक कदम भी चलनेकी आशा नहीं कर सकते ।
वास्तवमें, तुमने ऐसी बात कही है जो बहुत भयंकर है । यह कहकर
१२८ कि ''यदि वह पशुवत् हुए तो मैं उसकी अंतरात्माको संबोधित नहीं कर सकता,'' तुमने अपना ही परिचय दिया है... तुमने अपनेपर ही लेबल लगाया है । खैर ।
उन सब लोगोंने जिन्हें भागवत उपस्थितिका सच्चा और निश्छल अनु- भव प्राप्त हो चुका है, उन सबोंने जो सचमुच भगवानके संपर्कमें रह चुके है हमेशा कहा है कि कभी-कभी, बल्कि प्रायः ही मनुप्योंद्वारा अत्यन्त निंदित, अत्यन्त उपेक्षित और मानव 'बुद्धि' द्वारा अत्यधिक तिरस्कृत वस्तुमें भी तुम दिव्य प्रकाशकी चमक पा सकते हों ।
ये कोरे शब्द नहीं है, ये सजीव अनुभूतिया हैं ।
अच्छा-बुरा, शुभ-अशुभ, ऊंचनीचके सब विचार, सब धारणाएं मानव मनके अज्ञानसे संबंध रखती है, यदि तुम सचमुच भागवत जीवनके संपर्कमें आना चाहते हो तो तुम्हें इस अज्ञानसे पूरी तरह म्उक्त हो जाना चाहिये, तुम्हें चेतनाकी ऐसी भूमिकामें उठ जाना चाहिये जहां ये विचार कोई वास्तविकता नहीं रखते । (वहां) ऊंच-नीचकी भावना पूरी. तरह समाप्त हो जाती है, इसका स्थान एक दूसरी चीज लें लेती है जिसका स्वरूप बहुत भिन्न होता है -- यह एक प्रकारसे बाह्य प्रतीतियोंको पार करने और ऊपरी आवरणोंको वेधने और दृष्टि-बिन्दुको बदलनेकी क्षमता है ।
और ये शब्द नहीं है, यह बिलकुल सच है कि प्रत्येक वस्तुका रूप पूरी तरह बदल जाता है, जीवन और सब वस्तुएं जैसी लगती थीं उससे बिल- कुल भिन्न हों जाती है ।
वह समस्त सांसारिक संपर्क, अर्थात् संसारके प्रति वह साधारण दृष्टि (जो पहले थी) अपनी वास्तविकता पूरी तरह खो देती है । वही अवास्तविक, माया, मिथ्या, असत् प्रतीत होने लगता है । कोई दूसरी चीज -- जो बहुत पार्थिव, यथार्थ, भौतिक है -- सत्ताका. वास्तविकता बन जाती है और देखनेके सामान्य तरीकेके साथ इसका कुछ मेल नहीं होता । जब व्यक्ति उस दृष्टिको पा जाता है -- जो दृष्टि दिव्य शक्तिके कार्यको देखती है, उस गतिकों देखती है जो बाह्य प्रतीतियोंके पीछे, उनके अंदर, उनके द्वारा कार्य करती है -- तो वह सामान्य मानव मिथ्यात्वमें निवास करने- की अपेक्षा किसी अधिक सत्य वस्तुमें निवासके लिये तैयार हों जाता है, पर उससे पहले नहीं ।
इसमें समझौता नहीं होता, समझे? यह बीमारीके बाद धीरे-धीरे स्वस्थ होने जैसी चीज नही है : तुम्हें, जगतोकी अदला-बदली करनी होती है । जबतक तुम्हारा मन तुम्हारे लिये वास्तविक है, तुम्हारा सोचनेका तरीका तुम्हारे लिये सच्चा, वास्तविक, यथार्थ है, यह प्रमाणित करता है कि तुम
१२९ अभी वहां नही पहुंचे हो । तुम्हें पहले दूसरी ओर पहुंचना होगा, तभी तुम उसे समझ सकोगे जो मैं- कह रही हू ।
दूसरी ओर पहुंचे ।
यह सच नहीं है कि व्यक्ति थोडा-थोडा करके समझ सकता है, यह ऐसी बात नहीं है । इस प्रकारकी प्र गति दूसरी है । अधिक सत्य यह है कि व्यक्ति एक खोलमें बन्द है ओ र इस खोलके अंदर कुछ चीज बन रहीं है जैसे अण्डेमें मुर्गीका बच्चा । यह अंदर तैयार होता रहता है । यह अंदर होता है, तुम इसे नहीं देरवते । रवोलके अंदर कुछ होता है, परन्तु व्यक्ति बाहर कुछ नहीं देखता । औ र जब सब तैयार हो जाता है तभी खोलको भेदने और तोडकर बाहर आ जानेकी सामर्थ्य प्राप्त होती है । ऐसा नहीं है कि व्यक्ति अधिकाधिक गोचर या दृश्य बनता जाता है : व्यक्ति अंदर बंद होता है -- अंदर बंद -- और संवेदनशील व्यक्तियोंको तो ऐसा भयंकर अनुभव होता है कि वे दवे जा रहे है, वे बाहर निकलनेकी कोशिश कर रहे है पर सामने एक दीवार है, वे टकराते हैं, टकराते है, टकराते जाते है पर बाहर नहीं निकल पाते ।
और जबतक व्यक्ति वहां, अंदर होता है, वह मिथ्यात्वमे रहता है औ र जिस दिन गवान्की कृपासे उस खोलको तोडकर बाहर प्रकाशमें आ जाता है, वह स्वतंत्र हो जाता है ।
यह एकाएक, सहज रूपमें, बिलकुल अप्रत्याशित रूपमें हो सकता है । मुझे नहीं लगता कि व्यक्ति धीरे-धीरे पार जा सकता है । मुझे नहीं लगता कि यह एक ऐसी चीज है जो आहिस्ता-आहिस्ता घिसती जाती है और एक दिन तुम पार देखने योग्य हो जाते हो । मुझे अबतक एक मी ऐसा उदाहरण नही मिला । बल्कि वहां, अंदर श क्तिका ऐ सा जमाव, आवश्यकताकी ऐसी घनता और प्रयत्नमें ऐसी धीरता होती हुए जो समस्त भय., चिंता और गणनासे मुक्त हो जाती है, वह आवश्यकता ऐसी जबर्दस्ती होतीं है कि व्यक्ति परिणामकी फिर कोई परवाह रहीं करता ।
व्यक्ति एक विस्फोटककी तरह हों जाता है, जिसे कोई रोक नहीं सकता और वह फूट पड़ता है, अपने कारागारसे बाहर जाज्वल्यमान प्रकाशमें निकल जाता है ।
उसके बाद वह कभी पीछे नहीं लौटता । सचमुच, यह राक नया जन्म होता है ।
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